एक प्रदेश की राजधानी में मिले वह
राष्ट्रीय परिसंवाद में
एक विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर
हिंदी के वरिष्ठ आलोचक
नींद से जगाकर पहली ख़बर
उन्होंने मुझे यही दी -
'मैं विभागाध्यक्ष नहीं बन पाया'
मैं समझ नहीं सका
इस बात का
मेरी ज़िंदगी से
क्या संबंध है
तभी वहाँ आए मेरे मित्र
मैंने उनसे परिचय कराया -
ये गिरिराज किराडू हैं
युवा कवि
'प्रतिलिपि' के संपादक
बाद में उन्होंने पूछा -
'किराडू क्या तमिलनाडु का है ?'
मैंने कहा : नहीं
पर आपको ऐसा क्यों लगा ?
वह बोले : किराडू
चेराबंडू राजू से
मिलता-जुलता नाम है
वैसे जो नाम वह ले रहे थे
सही रूप में चेरबंडा राजु है
क्रांतिकारी तेलुगु कवि का
फिर उन्होंने किसी प्रसंग में कहा :
स्त्रियाँ पुरुषों को
एक उम्र के बाद
दया का पात्र
समझने लगती हैं
परिसंवाद के आख़िरी दिन
उन्हें बोलना था
'आलोचना के सौंदर्य-विमर्श' पर
मगर उससे पहले उनकी ट्रेन थी
इसलिए आयोजकों ने चाहा
कि वह 'आलोचना के समाज-विमर्श' पर
कुछ कहें
यों एक सत्र का शीर्षक
'आलोचना का धर्म-विमर्श' भी था
उन्होंने मुझसे कहा :
इस सत्र में बोलने को कहा जाता
तो ज़्यादा ठीक रहता
फिर कारण बताया :
हिंदी की सर्वश्रेष्ठ आलोचना
धर्म ही पर न लिखी गई है
बहरहाल उन्होंने अपने सत्र
'आलोचना का समाज-विमर्श' में
जो कुछ कहा
उसका सारांश यह है :
पहले भी दो बार बुलाया था यहाँ
व्यवस्था अच्छी है
आभारी हूँ
इस बार भी
आभार